• कोरोना काल में दिल्ली से बेरोजगार होकर अपने गांव लौट थे थान सिंह

गोपेश्वर (चमोली)। चमोली जिले के नंदानगर विकास खंड के कनोल गांव निवासी थान सिंह अमेस की खेती को अपनी आर्थिकी का जरिया बना कर उसे रोजगार के साधन के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रहे है। वर्तमान समय में उन्होंने अपनी छह नाली भूमि पर अमेस के पांच सौ पौधो का रोपण किया है जो अब फल देने लगे है। जिससे वे जूस बनाकर बाजार में उतार रहे है।

कोरोना काल से पहले थान सिंह दिल्ली में एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। कोरोना काल में जब रोजगार छूटा तो अपने गांव लौट आये। बकौल थान सिंह एक दिन वे अपने गांव में खेत में काम कर रहे थे तो उन्हें एक पेड़ पर छोटे-छोटे फल लगे दिखे तो उन्हें उसके एक दो दाने लेकर चबाना शुरू किया। जो काफी खट्टे थे। उन्होंने इसकी चटनी बनाने के साथ जूस बनाकर पीने की सोची लेकिन उनके घरवालों ने इसे जहर कह कर न खाने को कहा। जिस पर उनका मन नहीं माना और उन्होंने इन बीजों को एकत्र कर उसका जूस निकाला और दिल्ली के कृषि अनुसंधान केंद्र में इसकी जांच करवायी। जिस पर उन्हें आशा से अच्छे परिणाम मिले। अनुसंधान में पता चला कि यह जूस कई प्रकार की बिमारियों में रामबाण का कम कर सकता है। जिस पर उन्होंने लौट कर इसका जूस निकालना शुरू किया और लोगों को पिलाने लगे। पहले पहल तो लोगों को इसका स्वाद अच्छा नहीं लगा लेकिन अब उसमें चीनी और अन्य मसाले मिलने के बाद लोग इसे काफी पसंद करने लगे है। उन्होंने बताया कि उन्होंने जड़ी बूटी शोध संस्थान मंडल गोपेश्वर के साथ उद्यान विभाग से भी इसके बारे में जानकारी हासिल की। ताकि अधिक से अधिक लोगों तक इसको पहुंचाया जा सके। और बाजार में बिकने वाला पेय पदार्थ के रूप में इसको बढ़ावा मिल सके।

थान सिंह बताते है कि उन्होंने अपने गांव में छह नाली भूमि पर अमेस के पांच सौ पौधों का रोपण किया हुआ है। जो अब फल देने लगे है। वे बताते है कि इसकी खेती के साथ एक समस्या है जिसका अभी तक हल नहीं निकल पाया है। वह यह है कि पांच पौध लगाने पर एक पौध ही जीवित रह पाता है बाकि चार नष्ट हो जाते जो बड़ी समस्या है। साथ ही अभी तक उत्तराखंड में अमेस के बने प्रोडेक्ट को लोगों के बीच अच्छी पहचान और लाभकारी गुणों के रूप में प्रचार प्रसार नहीं मिल पाया है जिससे लोगों के बीच अभी तक यह पंसद किये जाने वाला पेय अथवा खाद्य सामग्री नहीं बन पाया है।

 

 

क्या है अमेस
अमेस का वानस्पतिक नाम शी बेकथाॅर्न है। जो जंगली प्रजाति का एक पेड़ है। जिस पर छोटे-छोटे पीले रंग के फल लगते है। यह कांटो से भरा होता है और उंचाई वाले स्थानों में पाया जाता है। पहले पहल लोग इसके अपने खेतों की बाड करने के लिए लगाते थे ताकि जंगली जानवर खेती को नष्ट न कर सके। सबसे पहले लद्दाख में इसके उपयोग जूस, चटनी, जेम, चाय पत्ति के रूप में की गई। वर्तमान में इसका उपयोग च्वनप्रास में भी किया जाने लगा है।

 

इसका उपयोग
असेस का उपयोग, ब्लड प्रेसर, खून की कमी दूर करने, गैस, शुगर, एग्जीमा के साथ अन्य बीमारियों में भी किया जाता है।

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