देहरादून : पुरूषार्थ बिल्कुल सीधा रखना है, इधर उधर भटकाने नही देना है और अपने पुरूषार्थ से सन्तुष्ट भी रहना है। हम चाहते तो है श्रेष्ठ करना परन्तु शक्तिहीन होने के कारण जो चाहते है उसे कर नही पाते है। संकल्प और कर्म को समान बनना है। अर्थात अब संकल्प और कर्म के बीच कोई अन्तर न हो, संकल्प किया और प्रैक्टिकल में आया।

हमारा चाहना तो श्रेष्ठ है परन्तु पुरूषार्थ कम है। पुरूषार्थ में जम्प लेने के लिए पुरूषार्थ की परसेन्टेज को बढाना होगा। क्योकि अभी जो परसेन्टेज है वह कम है। चेक करे कि हम हर समय एक रस स्थिति में पुरूषार्थ करते हुए अपने से सन्तुष्ट है। स्टेज तो बन जाती है परन्तु स्टेज के साथ परसेन्टेज भी चाहिए। हमें स्पीड और लक्ष्य का पता होना चाहिए। हम कहाॅ तक पहुचे है और हमे कहाँ तक जाना है, इसका स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए।

जब तक परसेन्टेज नही बढता है तब तक हम अपने प्रभाव को दिखाने में फेल रहते है। आज जो प्रभाव दिखना चाहिए वह नही दिखता है। बल्ब की लाईट में अलग-अलग परसेन्टेज होता है। एक है लाईट, दूसरा है सर्चलाईट और तीसरा है लाईटहाउस। हमारा लक्ष्य लाईटहाउस बनना होना चाहिए।

लाईट स्वरूप तो बन गये है परन्तु लाईटहाउस बन कर अपने चारों ओर के अन्धकार को मिटा कर लाईट फैलाना है। सभी को इतनी रोशनी दे कि वह अपने आप को देख सके और दूसरो को भी देख सके। जैसे दर्पण के समाने आने पर साक्षत्कार हो जाता है उसी प्रकार जब दूसरो को साक्षात्कार हो जायेगा, तब उनके मुख से जय-जयकार के नारे अवश्य निकलेगें।

दर्पण पाॅवरफुल न हो तब रीयल रूप की जगह अन्य रूप में दिखायी देता है। होता तो है पतला परन्तु दिखता है मोटा। हमें ऐसा दर्पण बनना है जो चीज जिस रूप में हो वह उसी रूप में दिखे। अर्थात लोग अपने देह रूप को भूलकर आत्मा को देख लें।

अव्यक्त महावाक्य बाप दादा मुरली, 12 सितम्बर 1972

लेखक : मनोज श्रीवास्तव, सहायक निदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड

                   
                                                         

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